Tuesday 25 October 2016

रंग लहू का  

भीड़-ओ-हुज़ूम     चारों तरफ़
नज़र आता है;
हर आदमी      फ़िर भी देखिये
तन्हा नज़र आता है,

गठजोड़     बाहुबल और  सियासत का
हावी है मुल्क पर;
मेरी तरह     हर इंसान यहाँ
सहमा नज़र आता है,

खींच दी     दीवारें कितनी
धर्म,जाति,भाषा, प्रान्त के नाम पर;
हर लम्हा,     हर शख्श पर इनका
पहरा नज़र आता है,

बात कुछ तो     खास होगी
उसमें कोई     ऐसी जरूर;
लाखों-हज़ारों में     सबसे वो
अलहदा नज़र आता है,

बदलेगा जमाना     एक दिन
थोडा जो बदलें     हम भी;
चरागे-उम्मीद तो     आंखों में हमारी
जलता नज़र आता है,

डूबतीं हैं अक्सर     किश्तियां
इश्क के समन्दर में वहाँ;
पानी     नहीं जहाँ किसी को
गहरा नज़र आता है,

रहते नहीं यहाँ     फ़िर क्युँ
चैनो-अमन से    तेरी दुनिया के लोग;
रंग लहू का     नहीं जब किसी का
जुदा नज़र आता है,

No comments:

Post a Comment