भीड़-ओ-हुज़ूम चारों तरफ़
नज़र आता है;
हर आदमी फ़िर भी देखिये
तन्हा नज़र आता है,
गठजोड़ बाहुबल और सियासत का
हावी है मुल्क पर;
मेरी तरह हर इंसान यहाँ
सहमा नज़र आता है,
खींच दी दीवारें कितनी
धर्म,जाति,भाषा, प्रान्त के नाम पर;
हर लम्हा, हर शख्श पर इनका
पहरा नज़र आता है,
बात कुछ तो खास होगी
उसमें कोई ऐसी जरूर;
लाखों-हज़ारों में सबसे वो
अलहदा नज़र आता है,
बदलेगा जमाना एक दिन
थोडा जो बदलें हम भी;
चरागे-उम्मीद तो आंखों में हमारी
जलता नज़र आता है,
डूबतीं हैं अक्सर किश्तियां
इश्क के समन्दर में वहाँ;
पानी नहीं जहाँ किसी को
गहरा नज़र आता है,
रहते नहीं यहाँ फ़िर क्युँ
चैनो-अमन से तेरी दुनिया के लोग;
रंग लहू का नहीं जब किसी का
जुदा नज़र आता है,
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